छत्तीसगढ़राजनीति

दिवालिया भाजपा के तीन सहारे :मोदी, मोदी और मोदी!!

मोदीमय होना है ; इस पार्टी की मजबूरी भी है, त्रासदी भी। मजबूरी यह है कि जिसे ब्रांड की तरह लांच किया है, उस ब्रांड के अलावा उनके पास कोई है ही नहीं।

विज्ञापन
WhatsApp Group Join Now
Telegram Channel Join Now

छत्तीसगढ़: मिजोरम में वोट डाले जा चुके हैं, 17 को मध्यप्रदेश का पूरा और छत्तीसगढ़ का बाकी बचा मतदान आज समाप्त हो जायगा। उसके बाद राजस्थान और फिर तेलंगाना में वोट डाले जायेंगे – फिर 3 दिसंबर को गिनती होगी और दोपहर तक रुझान, देर शाम तक सारे परिणाम मिल जायेंगे। तब जाकर पता चलेगा कि इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में ऊँट कहाँ और किस करवट बैठा है। मगर ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा का दिवालियापन चुनाव पूरे होने से पहले ही खुलकर सामने आ गया है।

विज्ञापन

यह सिर्फ आंकलन, अनुमान या कयास नहीं है ; यह बात तो बिना ऐसा कहे स्वयं भाजपा ने भी एक तरह से इसे स्वीकार कर लिया है। उसने मान लिया है कि जिसके नाम पर वोट माँगे जा सकें, ऐसी कोई नीति, कोई नेता, कोई उपलब्धि, कोई कामयाबी या योगदान उनके पास नहीं हैं। न देश के पैमाने पर ना ही जिन प्रदेशों, खासकर मध्यप्रदेश, में जहां वे दो दशकों से सरकार में हैं, वहां भी उनके पास गिनाने के लिए कुछ नहीं है। दिवालिया हुई भाजपा के पास अब डूबते को तिनके का सहारा के नाम पर सिर्फ, मात्र मोदी नाम केवलम बचा है।

चुनावों की सबसे प्राथमिक चीज चुनाव घोषणापत्र को ही देख लें, लोकतंत्र में कोई भी, किसी भी स्तर का चुनाव एक घोषणापत्र के आधार पर ही लड़ा जाता है। यह सिर्फ रस्मअदायगी नहीं होती, चुनाव लड़ने वाली पार्टियां इसमें मौजूदा सूरतेहाल पर अपना नजरिया रखती हैं, उसे बदलने का मंसूबा बनाती हैं और यह बदलाव किस तरह से करेंगी, इसे मतदाताओं को बताती हैं।

यह एक तरह से आने वाले 5 वर्षों का रोडमैप होता है। घोषणापत्र ऐन्वेइ नहीं होते, इनका खासा महत्त्व होता है। स्वयं भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने घोषणा पत्रों की महत्ता घटने पर चिंता जताई है – यह बात अलग है कि खुद उनकी पार्टी चुनाव अभियान के लगभग अंतिम चरण में पहुँच जाने तक भी इन पाँचों प्रदेशों में अपने घोषणापत्र जारी नहीं कर पा रही है।

इतनी देर और उस देरी के लिए मजाक का विषय बन जाने के बाद खानापूर्ति के लिए, नाम के वास्ते जो जारी किये भी जा रहे हैं, उन्हें संकल्प, दृष्टि, गारंटी वगैरह नाम दिए जा रहे हैं। इनमे जो दर्ज है, उसमें लफ्फाजियों के पुलंदे है, जिन्हें खुद मोदी रेवड़ियां कहते हैं ,उनकी भरमार है। जो दरसल रेवड़ी नहीं खुद की नाकामियों की तहरीर हैं।

जैसे : मप्र में 5 वर्ष तक मुफ्त राशन देने का वादा किया गया है और इस तरह यह मान लिया गया है कि अगर वे फिर सत्ता में आ गए, तो अगले 5 वर्षों में भी जनता के हालात सुधरने वाले नहीं हैं। विराट घाटे और असाधारण कर्जों में डूबी सरकार इसके लिए पैसा कहाँ से जुटाएगी, इस बारे में कोई संकेत देने तक की औपचारिकता भी नहीं की गयी।

उन्हें पता है कि चुनाव जीत जाने के बाद अव्वल तो किसी को पूछने ही नहीं दिया जाएगा, कहीं किसी ने पूछ भी लिया तो “वह तो चुनावी जुमला था” का आजमाया हुआ निर्लज्ज बहाना हाजिर है ही! बाकी इनमें और क्या है, जो है, वह कितना वास्तविक और कितना खोखला है, कितना झूठा और कितना छलावा है, इस पर यहाँ चर्चा करने का कोई अर्थ नहीं हैं। जब खुद इन्हें जारी करने वाली पार्टी – भाजपा – ही उन्हें गंभीरता से नहीं ले रही, तो दूसरों को उनकी मीमांसा करने की जहमत उठाने की क्या पड़ी है। यहाँ इसके बाकी और दिलचस्प पहलुओं पर नजर डालना ज्यादा उपयोगी होगा।

पहली बात तो वही है, जो शुरुआत में लिखी है कि भाजपा ने, जो उसकी गत हो गयी है, उसे अब एक प्रकार से आधिकारिक रूप से कबूल कर लिया है। यह मान लिया है कि अब उसके पास मोदी के सिवा कुछ भी नहीं है। जो संकल्प, दृष्टि, गारंटी वगैरह जारी किये गए, उनके नामो में ही भाजपा के टेंट के एक बम्बू पर टिके होने की स्वीकारोक्ति दर्ज है।
=मिजोरम में जो जारी हुआ वह “मोदी फॉर मिजोरम” है।
=“मध्यप्रदेश के मन में मोदी” के सूत्र-वाक्य से जारी दस्तावेज “मोदी की गारंटी भाजपा का भरोसा” का उपनाम लिए हुए है।
=छत्तीसगढ़ में इसे “छग के लिए मोदी की गारंटी” कहा गया है।

तेलंगाना में भाजपा की दशा दूबरे के दो आषाढ़ वाली हो गयी है। उसने काफी सोच समझ कर जिन्हें चुनाव घोषणापत्र बनाने वाली समिति का अध्यक्ष बनाया था, उन जी विवेक वेंकट स्वामी का विवेक अचानक से जाग गया और वे घोषणा पत्र बनाने के पहले ही पार्टी छोड़कर कांग्रेस में निकल लिए।

राष्ट्रीय नेताओं का इस स्तर तक उतरना भाजपा के भीतर जारी कलह और मारामारी का उदाहरण तो है ही, पार्टी को भी आरएसएस की तरह एकानुचालकवर्त समूह में बदलने की प्रक्रिया का तेज होना है। ऐसा नहीं है कि इस पार्टी के पास जनाधार वाले प्रादेशिक नेता नहीं हैं। हैं, मगर उन्हें दिखाना नहीं है। दिखना सिर्फ एक को है और वे कौन है, यह सब जानते हैं।

मोदीमय होना है ; इस पार्टी की मजबूरी भी है, त्रासदी भी। मजबूरी यह है कि जिसे ब्रांड की तरह लांच किया है, उस ब्रांड के अलावा उनके पास कोई है ही नहीं। त्रासदी यह है कि कार्यकर्ता अब थक चुके हैं – लाख कोशिशों और अकूत पैसा बहाने के बावजूद वे तनिक भी उत्साहित नहीं दिख रहे हैं।

वे लोगों के बीच के ताप को महसूस कर रहे हैं। गोदी मीडिया के एंकर – एन्करनियों की तरह उन्हें यह सुविधा नहीं है कि वे बंद एसी कमरे में बैठकर अपनी अल्लम-गल्लम बात या मोदी जैसी मन की बात करते रहें। वे लोगों के बीच रहते हैं, उन्हें हर रोज सवालों का सामना करना होता है। अब तो उनके घर वाले भी सवाल पूछने लगे हैं।

ये ऐसे सवाल हैं, जिनमें से एक का भी जवाब उनके पास नहीं होता। बार-बार पूछने और लाख सोचने पर भी वे मोदी की कोई कामयाबी नहीं गिना पाते। गिनाएं भी तो कैसे – अब तो खुद मोदी ही अपनी कोई उपलब्धि नहीं बता पा रहे हैं। हासिल कुछ नहीं है और नाकामियाँ सर पर चढ़कर बोल रहीं है।

जैसे ठीक चुनाव प्रचार के बीचों-बीच 8 नवम्बर पडा। यह नोटबंदी के मोदी के महान मास्टरस्ट्रोक की बरसी का दिन था। मगर न मोदी इस पर कुछ बोले, न किसी मंत्री ने मुंह खोला, न उनके चैनलों ने कोई जिक्र किया, सबकी घिघ्घी बंधी हुयी थी। अब जब राजा-वजीर-घोड़े-हाथी और ऊँट की यह हालत थी, तो बेचारे अकल सहित हर तरह से पैदल अंधभक्त बोलते, तो क्या बोलते।

आतंकवाद, भ्रष्टाचार और न जाने क्या-क्या कम होने के दावे तो छोडिये, नोटबंदी से कैशलेस इकोनॉमी लाने के दावे का हश्र क्या हुआ? औरों को बाद में समझाते, पहले खुद तो समझ लें कि 2014 में नोटबंदी से पहले 17.97 लाख करोड़ की मुद्रा नकदी प्रचलन में थी, वह कम होने की बजाय 71.84 % की बम्पर छलांग मारकर आज 32.42 लाख करोड़ तक कैसे पहुँच गयी?

रोजगार हर घर, खुद भाजपा कार्यकर्ताओं के घर, में खडा यक्षप्रश्न बन गया है ; जब ऊपर वालों के पास ही इसका जवाब नहीं तो नीचे वाले कहाँ से लायेंगे। मसले अनेक हैं, मणिपुर है, खेती-किसानी का लगातार बढ़ता संकट है। इन सबको जनवरी में उदघाटित होने वाले राम मंदिर के शोर में नहीं दबाया जा सकता।

अब तो साहेब की भाषण प्रवीणता तक हिचकोले खाने लगी है। एक सभा में बोलते हैं कि गरीब की कोई जाति नहीं होती, गरीब सिर्फ गरीब होता है, तो अगली सभा में खुद को ओबीसी – जो वे हैं नहीं – बताने पर आ जाते हैं। मगर ओबीसी की जनगणना पर मुसक्का मार जाते हैं। कुल मिलाकर यह कि सरोदा बिगड़ा हुआ है, इन चुनावों के जैसे परिणाम आते दिख रहे हैं, अगर वैसे ही आ गए तो 2024 की चिंता में स्थिति सन्निपात तक पहुँच जाए, तो अचरज नहीं होना चाहिए।

जनता के बदलते मूड से भयभीत इतने हैं कि कर्नाटक की हार के बाद की सीख भूल गए है। इस हार के बाद संघ समेत भाजपा इस निष्कर्ष पर पहुंची थी कि उसे ज्यादा मोदी केन्द्रित होने की बजाय प्रादेशिक नेताओं को तवज्जोह देनी चाहिए थी।

किया इसका उलटा, तीन बार के मुख्यमंत्री शिवराज का नाम चौथी सूची में आया, वसुंधरा से सुलह में आधा चुनाव निकल गया, छ.ग. में रमन सिंह हाशिये पर हैं, तेलंगाना और मिजोरम में कोई चेहरा था ही नहीं; हालांकि अब तो चेहरे भी मुश्किल बढ़ा रहे हैं ; मप्र में खाद की बोरी पर मोदी की तस्वीर चिपकाने का नतीजा यह निकला कि शर्माशर्मी में केंचुआ को भी चुनाव खत्म होने तक खाद के वितरण को रोकना पडा।

कहने की जरूरत नहीं कि मोदी-ही-मोदी की यह दावेदारी सिर्फ जीत की खीर पकने पर याद दिलाई जायेगी। चुनावों में पराजय – जो जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, वैसे-वैसे और भी ज्यादा मोटे हरूफों में दिखने लगी है — के बाद की महेरी में मोदी जी कहीं नहीं होंगे। कर्नाटक चुनावों के समय यह हो चुका है, वहां शायद ही कोई गली, मोहल्ला, चौराहा बचा था, जिस पर खड़े होकर मोदी जी ने वोट न मांगे हों। मगर जब निर्णायक पराजय वाला परिणाम आया, तो सारी भद्रा उस पार्टी पर उतारी गयी, जो चुनाव अभियान में कहीं दिख ही नहीं रही थी। यही इन पाँचों प्रदेशों में भी होने वाला है, क्योंकि यह पब्लिक है, जो सब जानती है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button